प्रकृति का प्रश्न

प्रकृति बिना इंसान के भी संपूर्ण थी। यह कविता हमें प्रकृति के स्वाभाविक सौंदर्य और मनुष्य की भूमिका पर सोचने को मजबूर करती है।

बिना मनुष्य के भी थी प्रकृति संपूर्ण,
नदियाँ बहती थीं, थी हरियाली पूर्ण।
पेड़ों की शाखें लहराती थीं मुक्त,
न था कोई शोर, न जीवन था रुग्ण।

पंछी गाते थे अपने ही सुर में,
फूल मुस्काते थे मंद-मंद गुरुर में।
नदियाँ बहती थीं अपनी ही चाल,
धरती थी शांत, आकाश था विशाल।

सूरज उगता था बिना किसी पुकार,
चाँदनी बिखरती थी हर एक द्वार।
जंगलों में था जीवन अनेक रूप,
हर प्राणी था अपने धर्म के अनूप।

फिर आया मनुष्य, विज्ञान का ज्ञान,
पर भूला वो अपनापन, छोड़ बैठा पहचान।
कटे पेड़, बुझे झरने, सन्नाटा छा गया,
प्रकृति थी वहीं, पर कुछ छूटता गया।

अब सोचो — क्या प्रकृति को ज़रूरत है हमारी?
या हमें है ज़रूरत उसकी, साँसों की सारी?
बिना मनुष्य के भी वो थी मुस्कान,
पर बिना प्रकृति के, कहाँ है इंसान?


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