शहर की जिंदगी: पढ़े-लिखे परिंदों का संघर्ष

citylife

पढ़े-लिखे परिंदे हैं, शहर की चारदीवारी में,नौ से छह की ड्यूटी, मन उलझा है बेचारी में। दिल तो गांव में है बसा, मगर देह है शहर की,ख़ुशी ढूंढने चले थे, पर मिली बस ख़बरें बासी-बासी। दोनों ही कमाने में जुटे, बच्चों को कौन संभाले,टारगेट की दौड़ है तेज़, तन है बीमा के हवाले। दोस्ती का […]

पढ़े-लिखे परिंदे हैं, शहर की चारदीवारी में,
नौ से छह की ड्यूटी, मन उलझा है बेचारी में।

दिल तो गांव में है बसा, मगर देह है शहर की,
ख़ुशी ढूंढने चले थे, पर मिली बस ख़बरें बासी-बासी।

दोनों ही कमाने में जुटे, बच्चों को कौन संभाले,
टारगेट की दौड़ है तेज़, तन है बीमा के हवाले।

दोस्ती का न अब वो संग है, न न्योता न कोई पुकार,
अपने ही घर में आते हैं, जैसे अजनबी किरायेदार।

बीघा की ज़मीन छोड़ी, वर्ग फीट के लिए,
रिश्ते भी पीछे छूट गए, शहरी भागदौड़ में।

पहले तो अच्छा लगता था, अकेलापन भी स्वप्निल था,
मुसीबतें भी हार मानती थीं, जब साथ परिवार था।

माता-पिता गांव में हैं अड़े, शहर में कहां मिले रोज़गार,
जिनके पास दोनों हैं, उनका जीवन है बेमिसाल।

पढ़े-लिखे परिंदे हैं, माचिस के घरों में,
नौ से छह की ड्यूटी, और थकावट भरे मन में।

यह कविता शहर में बसे उन लोगों की स्थिति का वर्णन करती है, जो अपने गांव और पारिवारिक जीवन को छोड़कर शहर की भागदौड़ में उलझ गए हैं। ये पढ़े-लिखे परिंदे यानी शिक्षित लोग, जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए शहर की चारदीवारी में बंद हो गए हैं, वे नौ से छह की नौकरी में फंसे हुए हैं।


प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

#Editors Choice #Inspirational Poem