बूढ़े पेड़ का दुख

“मैं बूढ़ा हूँ, पर जीवित हूँ…” — एक संवेदनशील कविता, जो एक पेड़ के माध्यम से जीवन, स्मृतियों और उपेक्षा की कहानी बयाँ करती है।

छांव में जिसकी खेले बचपन,
जिसकी छाया में बीते जीवन,
आज वही पेड़ खड़ा अकेला,
बता रहा है अपना मन का ग़म।

टहनी-टहनी बिखरी स्मृति,
पत्तों में छुपी हैं कहानियाँ कितनी।
कभी था वह गाँव की शान,
अब अनदेखा, जैसे अनजान।

जड़ें कहती हैं, “मैंने सींचा,
हर धूप-छांव में तुमको सीखा।
फिर क्यों आज तुम भूल गए,
मुझसे मुँह मोड़ दूर हो गए?”

न खेलते अब बच्चे झूले,
न कोई थक कर आ बैठता है।
कभी जिस तने से लगते थे दिल,
अब उसी पे कुल्हाड़ी चलती है।

कहता है पेड़ –
“मैं बूढ़ा हूँ, पर जीवित हूँ,
हर पत्ता अब भी कविता लिखता है।
मुझे मत काटो, मत ठुकराओ,
मैं तुम्हारे कल के लिए जीता हूँ।”

✍️ यह रचना हमें
डॉ. मुल्ला आदम अली जी
द्वारा प्राप्त हुई है।
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“इस कविता को साझा करें — ताकि हम सब फिर से याद करें कि पेड़ सिर्फ लकड़ी नहीं, यादें, साया और जीवन होते हैं।”


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