आखिर कहाँ गए वो दिन?

बचपन – हमारे जीवन का सबसे सुंदर, सबसे निश्छल समय होता है। बचपन में बिताया गया हर एक पल, हर एक लम्हा हमारे लिए अनमोल होता है। जब भी बचपन के उन हसीन लम्हों को हम याद करने बैठते हैं,
तो आँखें ख़ुशी से नम हो जाती हैं।

चलिए, इस कविता के माध्यम से एक बार फिर उसी बचपन की सैर पर चलते हैं…

सुबह-सुबह गागर लेकर, माँ के साथ कुँए पर जाना ।
मेहनत करके, पानी भरके, वापस घर को आना ।।
बचपन की वो यादें, अब गईं हैं छिन ।
आखिर कहाँ गए वो दिन ? ।।

फिर पिता के साथ मंदिर जाते ।
ईश्वर को हम शीष नवाते ।।
मन में भावना नहीं थी कोई हीन ।
आखिर कहाँ गए वो दिन ? ।।

जब हम खेल खेलते,प्यारी बहना हमें सताती ।
माँ आकर हमको ही सुनाती ।।
गुस्सा करके माँ से हम हो जाते थे खिन ।
आखिर कहाँ गए वो दिन ? ।।

रात को दादाजी हमें, सुंदर-सुंदर कहानियाँ सुनाते ।
सपनों की दुनिया में आकर, न जाने हम कब सो जाते ।।
आज नींद अधूरी है उन कहानियों के बिन ।
आखिर कहाँ गए वो दिन ? ।।

याद हैं मुझे आज भी ये सारी बातें ।
कितनी अच्छी थीं बचपन की वो सोगातें ।।
बेचैन खड़ा मैं सोच रहा , ये सारी यादें गिन ।
आखिर कहाँ गए वो दिन ? ।।

✍️ यह रचना हमें
देवराज लोधी (इंदौर, मध्यप्रदेश)
द्वारा प्राप्त हुई है।
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