गुरु हरगोबिंद जी: सिखों के साहसी गुरु

गुरु हरगोबिंद जी ने सिख धर्म को आध्यात्मिक और सैन्य दृष्टिकोण से मजबूत किया। उनके संघर्ष और नेतृत्व की विरासत आज भी प्रेरणा देती है।
गुरु हरगोबिंद जी का जन्म 19 जून 1595 को हुआ था। वे सिख धर्म के छठे गुरु थे और मात्र 11 वर्ष की आयु में अपने पिता गुरु अर्जन देव जी के शहीद होने के बाद गद्दी पर आसीन हुए। गुरु हरगोबिंद जी ने सिख समुदाय को न केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि सैनिक दृष्टिकोण से भी सशक्त बनाया।
सैन्यीकरण की शुरुआत:
गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों के आत्म-सुरक्षा के लिए धर्म और शक्ति का संतुलन स्थापित किया। उन्होंने दो तलवारें धारण कीं — एक धर्म सत्ता (spiritual authority) और दूसरी राज सत्ता (temporal authority) का प्रतीक थी। अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब के सामने श्री अकाल तख्त साहिब का निर्माण कर उन्होंने यह संदेश दिया कि सत्य एवं न्याय के मार्ग पर चलते हुए भी आत्मरक्षा आवश्यक है।
सिख सेना का गठन:
गुरु हरगोबिंद जी ने बलवान और साहसी युवाओं को संगठित कर पहली सिख सेना बनाई। उनका स्पष्ट विचार था कि शस्त्र केवल आत्मरक्षा और अत्याचार के विनाश के लिए हैं, न कि आक्रामकता के लिए।
बंदीछोड़ दिवस की कथा:
एक बार मुगल सम्राट जहांगीर ने गुरु जी को धोखे से गिरफ्तार कर ग्वालियर के किले में बंदी बना लिया। जब सम्राट को अपनी गलती का एहसास हुआ, तो गुरु साहिब ने रिहाई की शर्त रखी कि 52 बंदी हिंदू राजाओं को भी उनके साथ छोड़ा जाए। गुरु हरगोबिंद जी ने सभी राजाओं को मुक्त कराकर ग्वालियर से बाहर निकाला। अमृतसर लौटने पर दीपावली के दिन भव्य दीपमाला की गई, जिसे आज भी “बंदीछोड़ दिवस” के रूप में श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है।
धर्म प्रचार और सामाजिक कार्य:
गुरु हरगोबिंद जी ने व्यापक स्तर पर धर्म प्रचार यात्राएँ कीं। वे लोगों को परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते रहे। महिराज नामक स्थान पर एक घटना में, एक भूखे अनाथ बालक फूल को उन्होंने आशीर्वाद दिया, जिसके वंशज बाद में पंजाब की प्रमुख रियासतों — पटियाला, नाभा और जींद — के शासक बने। इन राज्यों को ‘फुलकियां राज्य’ कहा जाता है।
मुगल सत्ता से संघर्ष:
जब दिल्ली की गद्दी पर शाहजहां बैठा, तो गुरु साहिब और मुगलों के बीच संघर्ष और तेज हो गया। 1628 ई. में अमृतसर पर हुए आक्रमण में गुरु हरगोबिंद जी ने मुगल सेना को पराजित किया। बाद के वर्षों में भी कई युद्ध हुए, जिनमें हर बार गुरु साहिब ने विजय प्राप्त की। इनके लिए ये युद्ध धर्म और आत्मसम्मान की रक्षा के प्रतीक थे।
अंतिम वर्ष:
लगभग 12 वर्षों तक कैद में रहने के बाद भी गुरु हरगोबिंद जी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। अंततः उन्होंने कीरतपुर साहिब (पंजाब) में शांति से अपने अंतिम दिन बिताए। 1644 ई. में कीरतपुर में उनका देहावसान हुआ। अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने पोते गुरु हरराय जी को अगला गुरु नियुक्त किया।
गुरु हरगोबिंद जी ने सिख धर्म को केवल एक आध्यात्मिक आंदोलन ही नहीं रहने दिया, बल्कि उसे आत्मरक्षा, न्याय और सामाजिक उत्थान के लिए संगठित शक्ति का स्वरूप भी प्रदान किया। उनका जीवन साहस, त्याग और आध्यात्मिकता का आदर्श उदाहरण है, जो आज भी हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है।
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