पर आंखें नहीं भरी…

सौंदर्य, प्रेम और तृष्णा की अद्भुत कविता जो दिल को छू जाती है।
“पर आंखें नहीं भरी” – सौंदर्य की अतृप्त प्यास
कभी किसी चीज़ की सुंदरता इतनी गहरी होती है कि लाख बार देखने पर भी मन नहीं भरता। यह कविता एक ऐसी ही अदृश्य तृष्णा की सुंदर झलक है।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूँद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
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